बीजापुर और सुकमा जिले के नक्सलगढ़ में शिक्षा का अलख जगाने शिक्षा दूत मिसाल बने हुए हैं, कई सालों से सीमित संसाधन और अपनी जान जोखिम में डालकर आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ रहे हैं.
5 सितंबर शिक्षक दिवस पर पूरे देश में शिक्षकों का सम्मान किया जा रहा है ,सभी स्कूलों और शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों के सम्मान में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जा रहा है, वहीं छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित जिलो में ऐसे शिक्षक हैं जो अपनी जान जोखिम में डाल आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ रहे हैं, नक्सलियों के डर के साए के बीच पिछले कई सालों से यहां के स्थानीय ग्रामीण युवा, शिक्षा दूत के रूप में काम कर रहे हैं. ,यहा के अंदरूनी इलाक़ो में स्कूल भवन और संसाधनों के अभाव में पेड़ों के नीचे और झोपड़ी में पाठ शाला लगाकर मासूम बच्चों का भविष्य बना रहे हैं. शिक्षक दिवस के मौके एबीपी लाइव ऐसे ही शिक्षकों के बारे में बताने जा रहा है, जो न सिर्फ नक्सलगढ़ में शिक्षा की अलख जगा रहे है, बल्कि हर रोज मौत का सामना कर बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए मिलो साइकिल और पैदल चलकर आदिवासी बच्चों का भविष्य उज्ज्वल कर रहे हैं.
छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग पिछले 4 दशकों से नक्सलवाद का दंश झेल रहा है, जिस वजह से घोर नक्सल प्रभावित इलाकों में शिक्षा और स्वास्थ्य से यहां के ग्रामीण पूरी तरह से वंचित है, खासकर नक्सलियों ने अंदरूनी इलाकों में स्कूल भवनों को काफी नुकसान पहुंचाया है, जिस वजह से इन क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे स्कूली शिक्षा से कोसो दूर है. छत्तीसगढ़ राज्य गठन होने के बाद आज भी ऐसे कई गांव है जहां प्राथमिक शालाएं तक नहीं खुल पाई है, हालांकि पिछले कुछ सालों से कांग्रेस की सरकार ने बंद स्कूलों को वापस शुरू किया है, लेकिन इसके बावजूद संभाग के ऐसे सैकड़ो गांव है जहां आज भी स्कूलों का अभाव है. इनमें से ही कुछ इलाकों में शिक्षा दूत नक्सलियों के डर के साए में आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ रहे हैं.
जान जोखिम में डाल गढ़ रहे बच्चो का भविष्य
दरअसल नक्सली अंदरूनी क्षेत्रों में खुद की पाठशाला चलाते है और ऐसे कई तस्वीर भी सामने आए हैं जिनमें नक्सली अपनी खुद की पाठशाला चलाते दिखते हैं. इन मासूम बच्चों को बचपन से ही अपने संगठन में शामिल करने के लिए उनका ब्रेन वाश करते हैं, इसी को ध्यान में रखकर और स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से अंदरूनी गांव के पढ़े लिखे युवा शिक्षा दूध बनकर अपनी सेवाएं दे रहे है, नक्सलियों के डर के साए में और अंदरूनी क्षेत्रों में स्कूल भवनों के अभाव में पेड़ों के नीचे और झोपड़ीयो में पाठशाला चला रहे हैं और बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं. कई बार इन शिक्षा दूतों को नक्सलियों की खुली धमकी मिल चुकी है, वहीं नक्सलियों ने कुछ शिक्षा दूतों को मौत के घाट भी उतार दिया है, बावजूद इसके अपनी जान जोखिम में डालकर इन शिक्षा दूतो के द्वारा गांव गांव में पाठशाला लगाकर बाकायदा बच्चों को शिक्षा दिया जा रहा है.
छत्तीसगढ़ में शिक्षा दूत बने मिसाल
बीजापुर और सुकमा जिले के कलेक्टर से मिली जानकारी के मुताबिक वर्तमान में सुकमा जिले में 90 शिक्षा दूत अंदरूनी इलाकों में मौजूद पाठशालाओ में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, जबकि बीजापुर जिले में 191 शिक्षा दूत अपनी सेवाएं दे रहे हैं, खास बात यह है कि यह सभी शिक्षा दूत स्थानीय युवा हैं, जिन्होंने 12वीं तक पढ़ाई की है. ऐसे ही युवाओं को शिक्षा दूत बनाया गया है, सुकमा कलेक्टर एस.हरीश ने बताया कि शिक्षा दूतो को हर महीने 11 हजार रुपये एक मुश्त मानदेय दिया जाता है, जबकि बीजापुर जिले में शिक्षा दूतों को 10 हजार रुपये मानदेय दिया जाता है, इसके अलावा उन्हें और कोई भी अलग से भत्ता नहीं दिया जाता है, सीमित संसाधनों के बावजूद भी शिक्षा दूध नक्सलियों के घर में आदिवासी बच्चों को बेहतर शिक्षा दे रहे हैं और हर रोज मौत का सामना कर पेड़ों के नीचे और झोपड़ियो में पाठशाला लगाकर बच्चों को पढ़ाने के चलते मिसाल भी पेश कर रहे है.
नाम नहीं छापने की शर्त पर शिक्षा दूतों ने बताया कि उन्हें हर दिन मौत का सामना करना पड़ता है, कई बार नक्सली उन्हें रोक कर जान से मारने की धमकी भी दे चुके हैं, लेकिन आदिवासी बच्चों के भविष्य को देखते हुए अपनी जान जोखिम में डालकर गांव में पहुंचते हैं और बकायदा यहां बच्चों को शिक्षा भी दे रहे हैं, हालांकि लंबे समय से शिक्षा दूत मांग भी कर रहे हैं कि उन्हें अर्ध शासकीय से शासकीय (नियमित) किया जाए और उनके मानदेय भी बढ़ाया जाए. बावजूद इसके अब तक उनकी मांग पूरी नहीं हो पाई है, उन्होंने बताया कि पिछले कुछ सालों में नक्सलियों ने शिक्षा दूतों की हत्या भी की है, इसके अलावा बीजापुर और सुकमा इलाके में कई बार शिक्षा दूतों को बंधक भी बनाया गया है और चेतावनी भी दी गयी है. ऐसे में हमेशा नक्सलियों का डर बना ही रहता है , वहीं अंदरूनी इलाकों में उन्हें अपने साथ हर वक्त पाठशाला का रजिस्टर अपने पास रखना पड़ता है, कई बार गश्ती के दौरान जवान भी शिक्षा दूतों से कई सवाल करते हैं,ऐसे में उनके लिए स्कूल का रजिस्टर ही सहारा होता है.
शिक्षा दूतों का सम्मान भी नहीं होता
शिक्षा दूत ने बताया कि बीजापुर जिले में 100 से अधिक जगहों पर आज तक स्कूल भवन ही नहीं बन पाया है, यहां झोपड़ी और पेड़ों के नीचे पाठशाला लगाकर बच्चों को पढ़ाया जाता है, यही हाल सुकमा जिले का भी है, यहां भी स्कूल भवन के अभाव में पेड़ों के नीचे और झोपड़ियों में ही स्कूल लग रही है ,कई बार जिले के बड़े अधिकारियों को स्कूल भवन बनाने की मांग की गयी है, लेकिन नक्सलियों के दहशत के चलते यहां भवन ही नहीं बन पाया है. खासकर बारिश के मौसम में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, इन गांवों तक पहुंचने के लिए पगडंडियों का सहारा लेना पड़ता है और कई मिलो तक पैदल भी चलना पड़ता है. शिक्षा दूतों ने मांग की है कि सरकार उन्हें भी नियमित करें. साथ ही हर वक्त मौत का डर बने रहने की वजह से उनका बीमा भी किया जाए. इधर देश के अन्य इलाकों में शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का सम्मान किया जाता है, लेकिन इन नक्सलगढ़ में आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ रहे इन शिक्षा दूतों का सम्मान भी नहीं होता, जिसको लेकर बस्तर के शिक्षाविदों ने अपनी नाराजगी भी व्यक्ति की है.